बासी खाने के बाद खट्टी डकार जैसी हैं बादशाहो

आखिर चीज़ क्या हैं बादशाहो:

प्यार, मोहब्बत, धोखा, चोर, डाकू और पुलिस। दशकों से बस यही पहचान रही है हमारे बॉलीवुड की कहानियों की और इसी महान विरासत को आगे बढ़ाने का काम किया है बादशाओ ने। फर्क बस इतना है कि 1975 में विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा घोड़े पर बैठ कर गांव लूटने आते थे पर इस फ़िल्म के 1975 में अजय देवगन और इमरान हाशमी बड़ी बड़ी गाड़ियां लेकर घूम रहे हैं।

आपातकाल का ड्रामा

1975 की बात हुई है तो इंदिरा गांधी और आपातकाल का ज़िक्र भी होना ही था। वैसे 1975 को ज़बरदस्ती घुसाया ही इसलिए गया है ताकि राजकुमार संजय गांधी को वैसे ही दिखाया जा सके जैसे चक्कर मे एक बाबाजी ताज़ा ताज़ा जेल गए हैं पर फ़िल्म बनाने वालों ने समझदारी ये दिखाई कि संजय गांधी को संजीव नाम से बुलाया गया है और कांग्रेस वालो को हाय तौबा मचाने से रोकने के लिए इतना काफी है। महारानी गायत्री माता के खजाने की कहानियां जो राजस्थान में सुनाई जाती है उसको उठाकर पूरी 2 घंटे 14 मिनट की फ़िल्म बना दी गयी और इसको छोड़ कर बाकी 1975 वाला कुछ नही है।

किराये पर मकान देने की सोच रहे हैं?? ये पढेंगे तो सोचने पर मजबूर हो जायेंगे।

तो अब देश मे अंग्रेजी बोलना भी जुर्म हो गया हैं!!

नाम बादशाहो ही क्यों

फ़िल्म का नाम बादशाहो क्यो है ये एक अलग ही शोध का विषय है क्योंकि कहानी तो राजस्थान की है। हुआ यूं कि जैसे कोल्ड ड्रिंक पीने के बाद अपने आप डकार आ जाती है वैसे ही इमरान हाशमी के मुंह से चोरी के ट्रक में बैठते ही पंजाबी स्टाइल में बादशाहो निकल जाता है और जनता का अपना सिर पीटने का मन करने लगता है। अजय देवगन और इमरान हाशमी हमेशा की तरह टशन में घूमते दिखाए गए है भले ही पुलिस पीछे पड़ी हो या आर्मी। बार बार ऐसा लगता है जैसे मैड मैक्स का ट्रक उठा कर, फ़ास्ट एंड फुरिय्स में घुसा कर अब्बास मस्तान को चलाने के लिए पकड़ा दिया गया हो। हमारी फिल्मों में एक अटल नियम रहा है कि बिना हीरोइन वाला हीरो ज्यादातर बार क्लाइमेक्स में मार दिया जाता है, शायद यही एक वजह होगी कि ईशा गुप्ता को फ़िल्म में लिया गया है ताकि आखिर में इमरान भाई को जान न देनी पड़े। इलियाना के साथ इस फ़िल्म में सबसे ज्यादा धोखा हुआ है। 90% फ़िल्म में एक पीली साड़ी पहनाकर जेल में डाल दिया है पर तारीफ करनी पड़ेगी की साड़ी और मेकअप ऐसा है कि हफ्तों तक जेल में रहने के बाद भी न साड़ी और न ही चेहरे पर एक भी सलवट पड़ती है। बिल्कुल यही हाल विद्युत जामवाल की भाव भंगिमाओं का रहा है।

मेरी ज़िन्दगी तो हिंदी हैं पर मेरी बीवी अंग्रेजी हैं

देखें या नहीं

अगर विद्युत और अजय के एक्शन के लिए फ़िल्म देखने की सोच रहे हैं तो फ़िल्म देखने के बाद आप प्रोड्यूसर डायरेक्टर पर धोखाधड़ी का मुक़द्दमा डालने पर विचार करने लगेंगे क्योंकि कुछ खास एक्शन है ही नही। संजय मिश्रा के कुछ डायलॉग्स मुस्कुराहट जरूर लाते है नही तो बाकी कलाकार नकली राजस्थानी और हिंदी में ही कंफ्यूज होकर बोलते चले जाते हैं। हालांकि कहानी में लॉजिक के नाम पर न कोई सिर है न पैर पर एक बार देखने बैठ गए तो देखी जा सकती है बस पैसा वसूल करने की उम्मीद करना खुद के सिर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा।

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