ये सिमरन “स्मरण” करने लायक नही

अगर कोई मुझसे पूछे कि सिमरन फ़िल्म कैसी लगी तो मेरा उनसे सवाल होगा कि आपको “क्वीन” कैसी लगी थी। 2014 में न केवल खुद श्रेष्ठ फ़िल्म बनी बल्कि कंगना को श्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाने वाली क्वीन बहुत लोगों को पसंद आई थी पर मुझे कुछ खास नही लगी थी बल्कि डिस्कवरी जैसे चैनलों पर आने वाली डॉक्युमेंट्रीज़ मुझे कही ज्यादा बेहतर लगती हैं। सिमरन बहुत मायनों में क्वीन का ही अगला भाग है और अगर ये भी टी-सीरीज की जगह अनुराग कश्यप द्वारा निर्मित होती तो बेशक इसका नाम क्वीन 2 या क्वीन रिटर्न्स ही होता।

क्वीन में दिखाई गई एक घरेलू लड़की जो खुद को समाज के द्वारा थोपी पाबंदियों से आज़ाद कर चुकी थी, सिमरन में तलाकशुदा कामकाजी महिला हो चुकी है और अब खुद का एक घर चाहती हैं, मां बाप या पति का नही, अपना खुद का घर। अपनी महत्वकांक्षाएं पूरी करने की जल्दबाजी में उठाया एक गलत कदम किस तरह उसे मुसीबतों में फंसाता चला जाता हैं, बस यही दिखाने की कोशिश हैं सिमरन। वैसे फ़िल्म एक महिला संदीप कौर की सच्ची कहानी बताई जाती हैं पर जिस तरह से अमेरिकी पुलिस को बेवकूफ बनता हुआ दिखाया गया हैं, उत्तर प्रदेश पुलिस तक खुद पर गर्व महसूस कर सकती हैं।

जब से अंग्रेज़ी फिल्मों का भारत के सिनेमाघरों में दिखाया जाना शुरू हुआ हैं तब से 10 रुपए के पॉपकॉर्न 250 रुपए में बेचने के लिए ज़बरदस्ती का एक इंटरवल बना दिया जाता हैं जिसमे फ़िल्म कही भी बीच मे रोक दी जाती हैं। पर ये पहली हिंदी फिल्म हैं जिसमे निर्देशक ने बिल्कुल वैसा ही किया हैं। वैसे हंसल मेहता वही निर्देशक है जिन्होंने महेश भट्ट के साथ मिलकर, 2014 के चुनाव में सेकुलरिज्म की दुहाई दुहाई दे देकर जनता से सिर्फ सेक्युलर पार्टी को वोट देने की अपील की थी। वही भारतीय सेकुलरिज्म एक संवाद में दिखाई देता हैं जहां मुस्लिम समाज को बिना वजह ही अपराधी मान लेने की मानसिकता पर कटाक्ष किया गया हैं। एक साधारण फ़िल्म, अर्ध विराम के बाद और फिसलती जाती हैं। एक जरूरत से ज्यादा लंबा रोमांटिक गाना, एक प्रेमी जो हर बॉलीवुड फिल्म में बिना किसी स्वार्थ के अपना सब कुछ बलिदान करता दिखाया जाता हैं और एक ज़बरदस्ती का किया गया क्लाइमेक्स, आपको बार बार फ़ोन में व्हाट्सएप पर बांटा जा रहा ज्ञान समेटने को मजबूर कर देता हैं।

कंगना का अभिनय दमदार हैं। अपनी गलतियों के लिए अपने से खफा होते हुए भी हार न मानने की इच्छाशक्ति का बखूबी प्रदर्शन करते हुए ऐसा लगता हैं जैसे वो अपनी खुद की ही ज़िन्दगी जी रही हो। साथी कलाकारों ने भी अच्छा अभिनय किया हैं। फ़िल्म अमेरिका की पृष्ठभूमि में हैं इसलिए अधिकतर संवाद अंग्रेज़ी में हैं, वो भी बिना सब टाइटल्स के इसलिए “डुगुना लगान देना पड़ेगा” टाइप के कोई डायलॉग्स नही रखे गए हैं। फ़िल्म जहां बुरी तरह मार खाती हैं वो हैं इसकी कहानी और निर्देशन तो फिर कुछ और बचता ही नही। अगर एक लड़की का नाम प्रफुल्ल पटेल अखरता हैं तो फ़िल्म का नाम सिमरन रखने की वजह DDLJ को ट्रिब्यूट कम और सोच की कमी ज्यादा लगती है। अब भी आप पूछेंगे की फ़िल्म कैसी थी तो मेरा फिर वही सवाल होगा कि आपको क्वीन कैसी लगी थी। अगर अच्छी लगी थी तो ये शायद ये भी ठीक लगे नही तो बेहतर यही रहेगा कि दिमाग को आराम ही दीजिये।

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